हकीकत है यह बुंदेली कविता, 'पढ़ाने वाले मास्टर गद्दार थे'

 



 



नरेंद्र पुंडरीक (कवि), बांदा


पढ़ाने वाले मास्टर गद्दार थे


'हरे कांच की चूंडिया' पहली फिलम थी जो मैनें


अपने शहर के टाकीज में देखी थी


नाम तो याद नहीं आ रहा लेकिन बहुत


खूबसूरत थी उसकी हीरोइन


महिनों आंखों के आगे नाचती रही थी उसकी सूरत ,


उसके पांवों के तलुवे बहुत मुलायम और खूबसूरत थे


तब शायद हीरोइनें हाथ और पांवों से ही


अपने खूबसूरत होने का अहसास कराती थी


सो उसके पांवों को फिलम का नायक सहला रहा था


इस सहलाने को लेकर


मुझे उस वक्त नायक के भाग्य पर ईष्या हो रही थी


 इस वक्त मैं कुछ दिन


उन लोगों की तलाश में रहा


जो मुझे मुंबई पहुंचा दें


इसके बाद इतना जिन्दादिल


दिल कभी नही रहा,


इसके पहले अपने स्कूल में


एक फिलम देखी थी 'दोस्ती'


लगा था मेरे घर के सामने यदि


लगा होता ऐसा ही लैम्पपोस्ट तो


किरोसिन की चिन्ता में


हमारे पढ़ने की लौ धीमी न होती,


'दोस्ती' देखने के बाद


लम्बे समय तक दोस्तों का दोस्त बना रहा था


यह वह समय था


जो हम देखते थे वह हमें बनाता भी था


कोर्स की किताबों के बीच में


गुलशन नंदा, प्रेम बाजपेई, रानू


इब्नेसफी और ओमप्रकाश मन में सटने लगे थे


इस सटने और रमने के दौरान ही


गांव के पंचायती पुस्तकालय में देवकीनंदन, कुशवाहाकांत, दादाकामरेड


चित्रलेखा, सेवासदन और गोदान ने


अपने गांव घर के बंद पट ऐसे खोल कर रख दिये कि


सड़ांध से जी भन भना कर रह गया था,


इन्हीं दिनों के कुछ दिन बाद


जब मैं कालेज में आया तो


सुनीता और शेखर से मुलाकात हुई


व्दीप की तरह नदी में


हिलुरने का मन हुआ 


प्रेम में तो नहीं लेकिन गुनाह करने के बाद


गुनाहगारों के देवता बनने की शुरुवात हो गई थी ,


पढ़ने लिखने के बाद हर कहीं


बेरोजगारों की लम्बी लाइनें बनने लगी थी


स्कूल में पढ़ते हुये यह गुमान में नहीं आया था कि


आने वाले दिनों में इनमें हमारा अपना भी चेहरा शामिल होगा ,


कालेज से निकल कर जब हम बाहर आये तो देखा कि


बेराजगारों की यह लाइन और लम्बी हो चुकी थी


जहां मैं अपने साथियों सहित निचाट लपलपाती धूप में खड़ा था


निचाट धूप में खड़े हुये मुझे पहली बार लगा कि


जो किताबों में पढ़कर आये थे वह एक धोखा था और


पढ़ाने वाले मास्टर गद्दार थे


जो लिखे को उल्था करते हुये


हमें कभी समय की इस धूप के बारे में नहीं बताया था


जो हमारे सपनों के रंगों को सुखाने के लिए बाहर तैयार हो रही थी


हमारी आंखों में हमारे सपनों के रंग ही नहीं


पिता की आंखों के सपनों के भी रंग थे


जो हमारी फजीहत को देख उनकी अपनी आंखों में वापस लौट रहे थे।